बेलें....
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प्रकृति ने जीव को जीने की तमाम कलायें देने के बाद सबसे ख़ूबसूरत और बेशक़ीमती तोहफ़ा 'आशा' यानी होप का दिया होगा। उसकी जिजीविषा को बहुमूल्य सौगात।
हमनें शताब्दियों का सफ़र इस वास्ते किया कि हमारे इक क़दम के आगे दूसरा क़दम था, हमारी इक स्याह रात के बाद उजाले की दूसरी सुबह थी, बेसब्र इंतेज़ार के बाद ख़ुशी का सुकून और हमारी एक चाह के बाद दुनिया को आगे बढ़ने की दूसरी तमन्ना थी।
जैसे पौध की कोमल, सुकुमार बेलें। कितनी तो मुलायम, पर इच्छा इतनी तटस्थ की दृढ़ पर्वतों और दुर्गम जगहों में भी अपने जीने की राह ख़ोज लें।
फ़िल्म 'द शौशैंक रिडेम्प्शन' का एक यादगार डायलाग बरबस याद आ जाता है जब एंडी लिखता है-"आशा एक अच्छी चीज है, शायद सबसे अच्छी चीज, और कोई भी अच्छी चीज कभी नहीं मरती।"
इसी तरह कभी साहिर लुधियानवी ने लिखा था -
"जो रास्तों के अंधेरों से हार जाते हैं,
वे मंजिलों के उजाले को पा नही सकते।"
बेलें- जीने का इतना सुंदर अफ़साना, बढ़कर जीवन की डोर थामने की अप्रतिम कोशिश और जिंदगी को गले लगा उसे प्रेम करने का नायाब उदाहरण। बेलें बड़ी जिद्दी होती हैं। जिंदगी से लबरेज़ जिद्दी बेलें।
पौध से फुटकर ऐसे बढ़ती है जैसे प्रकृति ने अपनी सारी इच्छाशक्ति, अपना संकल्प इन कोमल, नाज़ुक लताओं में भर दिया हो। और यह उस आशा रूपी अमृत को पीकर बढ़ती ही जाती हैं। मन का विश्वास इनकी महीन, बारीक लता-तंतुओं में समाकर इन्हें इनकी मंज़िल की ओर ले जाता है।
रास्ते में कोई भी सहारा वह उसे लपक अपनी जीवन यात्रा तय करती हैं। आशा के पदचिन्हों को कितनी नज़ाकत से पकड़ती हैं ये।
मैंने देखा एक बेल को अपनी बालकनी में खिलते हुए। देखा है एक स्वप्न को जमीं से उठकर उफ़क़ पर चढ़ते हुए। वह लाल गमले में खिलती हुई थोड़ी बड़ी हुई और हवाओं में राह खोजती रही कुछ दिन। देखती थी चुपके से झांक दरवाज़े के भीतर भी कभी। एक टहनी भी जाया हुई उसकी इस नाकाम कोशिश में मगर।
पर जीने का जो सबब लेकर आई थी वह प्रकृति से कभी। एक रात चुपके से पकड़ा उसने खिड़की के ग्रिल का दामन। सुबह हंसती हुई मिली वह अपनी दोनों बाहें लेकर। उसने बाहों के आलिंगन से घेरा था खिड़की के ग्रिल को। नज़र उठा मेरे देख लेने भर से थोड़ी शरमा सी गयी मगर।
वह खुश थी बहोत जीने के अफ़साने को लेकर। मुझे आश्चर्य हुआ था उसे खिड़की के ऊपर बढ़ता देखकर।
वह आश्वश्त खिड़की पर जमी है अब। हाथ आशा का बढ़ाया था कभी उसने, हाथ थाम लिया था किसी और ने बढ़कर।
मैं देखता हूँ उस बेल को हर सुबह। वह रोज़ पहले से बढ़ी दिखती है। जिंदगी जीने के ये बहाने हैं उसके।
मैं हर सुबह यही कहता हूँ-बेलें बड़ी जिद्दी होती हैं। जिन्दगी से लबरेज़ जिद्दी बेलें।
~n
#tendrils #madhumalati #madhumaltiflowers #flowersofindia #indianflowers #fulonparlekh #lekhflowers #nawalkishor #nawal
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प्रकृति ने जीव को जीने की तमाम कलायें देने के बाद सबसे ख़ूबसूरत और बेशक़ीमती तोहफ़ा 'आशा' यानी होप का दिया होगा। उसकी जिजीविषा को बहुमूल्य सौगात।
हमनें शताब्दियों का सफ़र इस वास्ते किया कि हमारे इक क़दम के आगे दूसरा क़दम था, हमारी इक स्याह रात के बाद उजाले की दूसरी सुबह थी, बेसब्र इंतेज़ार के बाद ख़ुशी का सुकून और हमारी एक चाह के बाद दुनिया को आगे बढ़ने की दूसरी तमन्ना थी।
जैसे पौध की कोमल, सुकुमार बेलें। कितनी तो मुलायम, पर इच्छा इतनी तटस्थ की दृढ़ पर्वतों और दुर्गम जगहों में भी अपने जीने की राह ख़ोज लें।
फ़िल्म 'द शौशैंक रिडेम्प्शन' का एक यादगार डायलाग बरबस याद आ जाता है जब एंडी लिखता है-"आशा एक अच्छी चीज है, शायद सबसे अच्छी चीज, और कोई भी अच्छी चीज कभी नहीं मरती।"
इसी तरह कभी साहिर लुधियानवी ने लिखा था -
"जो रास्तों के अंधेरों से हार जाते हैं,
वे मंजिलों के उजाले को पा नही सकते।"
बेलें- जीने का इतना सुंदर अफ़साना, बढ़कर जीवन की डोर थामने की अप्रतिम कोशिश और जिंदगी को गले लगा उसे प्रेम करने का नायाब उदाहरण। बेलें बड़ी जिद्दी होती हैं। जिंदगी से लबरेज़ जिद्दी बेलें।
पौध से फुटकर ऐसे बढ़ती है जैसे प्रकृति ने अपनी सारी इच्छाशक्ति, अपना संकल्प इन कोमल, नाज़ुक लताओं में भर दिया हो। और यह उस आशा रूपी अमृत को पीकर बढ़ती ही जाती हैं। मन का विश्वास इनकी महीन, बारीक लता-तंतुओं में समाकर इन्हें इनकी मंज़िल की ओर ले जाता है।
रास्ते में कोई भी सहारा वह उसे लपक अपनी जीवन यात्रा तय करती हैं। आशा के पदचिन्हों को कितनी नज़ाकत से पकड़ती हैं ये।
मैंने देखा एक बेल को अपनी बालकनी में खिलते हुए। देखा है एक स्वप्न को जमीं से उठकर उफ़क़ पर चढ़ते हुए। वह लाल गमले में खिलती हुई थोड़ी बड़ी हुई और हवाओं में राह खोजती रही कुछ दिन। देखती थी चुपके से झांक दरवाज़े के भीतर भी कभी। एक टहनी भी जाया हुई उसकी इस नाकाम कोशिश में मगर।
पर जीने का जो सबब लेकर आई थी वह प्रकृति से कभी। एक रात चुपके से पकड़ा उसने खिड़की के ग्रिल का दामन। सुबह हंसती हुई मिली वह अपनी दोनों बाहें लेकर। उसने बाहों के आलिंगन से घेरा था खिड़की के ग्रिल को। नज़र उठा मेरे देख लेने भर से थोड़ी शरमा सी गयी मगर।
वह खुश थी बहोत जीने के अफ़साने को लेकर। मुझे आश्चर्य हुआ था उसे खिड़की के ऊपर बढ़ता देखकर।
वह आश्वश्त खिड़की पर जमी है अब। हाथ आशा का बढ़ाया था कभी उसने, हाथ थाम लिया था किसी और ने बढ़कर।
मैं देखता हूँ उस बेल को हर सुबह। वह रोज़ पहले से बढ़ी दिखती है। जिंदगी जीने के ये बहाने हैं उसके।
मैं हर सुबह यही कहता हूँ-बेलें बड़ी जिद्दी होती हैं। जिन्दगी से लबरेज़ जिद्दी बेलें।
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