चाँदनी
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भई तृप्त
सावन के बूंदाकड़े पीकर
खिलती हो चांदनी
मधुरमय होकर!!
वर्षा-काल में यदि जल-प्रलय से कोई छति न होती तो इससे मनभावन और कोई ऋतु नही। वर्षा के कारण वाटिकाओं का हर्सोल्लासित हो हरित वस्त्र धारण कर चहक उठना भला किसे नही भाता। जेठ की झुलसती तपिश के बाद बारिश का आना किसी त्योहार से तनिक भी कम नही।
और तिसपर वाटिकाओं, गृह-परिसरों और वनस्थलों में पुष्पों का खिलना। जैसे मेह के रस को पादपों द्वारा अपने अंग-प्रत्यंग में पपीहे की तरह रसपान करना। एक अनंत आनंद की अनुभूति। वैसे तो वर्षा-काल में कुछेक पुष्प ही पुष्पित होते हैं। बसंत के स्वागत में पहले ही सारे पुष्प अपनी वार्षिक सौंदर्य-प्रदर्शन कर चुके होते हैं। जो जेठ की गर्मी को सहकर खिलते हैं वह ढीठ होते हैं।
इन्ही पुष्पों में एक चिरपरिचित पुष्प है चाँदनी। श्वेत वर्ण का यह पुष्प वैसे तो पूरे साल ही अपनी मनोहर छटा बिखेरता है परंतु बारिश में यह और भी मादक और आकर्षक लगता है।
महाकवि कालिदास ने मेघदूत में कई पुष्पों का वर्णन किया है जैसे कि अशोक, रक्तवर्णी कुरबक, शिरीष इत्यादि, जब अपने घर से दूर किसी पर देश मे रहता हुआ यक्ष मेघ से अपनी प्रेयसी के लिए संदेश भिजवाता है। चाँदनी का पुष्प शायद पूरे साल खिलता है इसलिए ज़्यादा आकर्षण न रहा होगा। यदि लिखा भी होगा तो वर्तमान में मेरी आँखों से नही गुज़रा होगा।
शुभ्र वर्ण का यह पुष्प पंच-दलों का होता है। इस एकल खिलना पसंद है परंतु गुच्छों में ही रहता है। शायद यह कहने की कोशिश हम साथ तो हैं पर अलग प्रकृति, अलग मूड वाले हैं। इसके पांचों दल एक घूमती हुई घिरनी जैसे लगते हैं और उनके मध्य भाग में हल्के पित वर्ण का एक टीका। जैसे किसी रमणी ने समस्त सृंगार के तदोपरांत अपनी ललाट पर पिले रंग की एक छोटा सा पिला बूटा आँक दिया हो। और इसके बाद अपनी चोटियों का अंतिम सिरा पुष्प की डंठल में बांध उसे पुष्प की टहनी से स्थिर कर दिया हो।
चाँदनी अपनी छटा रात में बिखेरती है पर प्रातःकाल में उतने ही उन्माद में रहती है जितना वह रात्रि के समय होती है। गाढ़े हरे रंग की पत्तियों के मध्य यह पुष्प सफ़ेद सितारों जैसी दिखटी है। जैसे रात का विस्तृत आँचल हो और उसपर नवीन तारों का झुंड उग आया हो। जैसे वर्षा-ऋतु में रात्रि के समय पेड़ों पर जुगनू चमक आते हैं। श्वेत चाँदनी कुछ इस तरह ही अपनी छोटी सी पौध में खिलखिलाती उठती है। ऐसा लगता है बारिश के उपरांत एक विस्तृत वाटिका में घास के ऊपर जल-कण आलस्य से सराबोर हो सुस्ता रहे हों।सारी वनस्थली चाँदनी के पुष्पों से सजी हो और इसी बीच एक सुंदर रमणी उस वनस्थली में प्रवेश करती है। अपने शरीर को उसने पुष्प-आभूषणों से सजाया है। अपने कलाइयों और पैरों में चाँदनी के पुष्पों को गूथ उन्हें अलंकृत किया है।अपने श्वेत मुखमंडल पर कोई पित परागकण मलकर उसे और भी मोहक बनाया है। और अपने अधरों पर पीले रंग की कोई मादक द्रव्य रंगा हो।
उस वनशाला में वह अकेली लजाई हुई खड़ी है जिसके मुखमंडल पर हया आकर ठहर गयी है। और इस पर से बारिश। जैसे किसी ने ताम्र की सुराही में मदिरा भर चाँदनी पर उलेड़ दिया हो और चाँदनी उस मदिरापान के पश्चात मदमस्त हो गयी है।
पतली, लघु डालियों पर खिली चाँदनी पर जब सावन के बूंदाकड़े गिरते हैं तो ऐसा लगता है चाँदनी बूंदों के बोझ से दबी जा रही है। अपने अधरों से उन जलबून्दों को पीने के बाद उसकी यौवनता और भी चंचल हो उठती है। और रस से भरी हुई चाँदनी में जीवन का आमोद सारी हदों को पार कर जाता हो। और बूंदों के भार से वह अपनी डाली से ऐसे गिरती है जैसे एक अलसाया सपना नींद के बोझ से गिर पड़ता है। जैसे धप्प से बेआवाज़ किसी युवती का अपने बिस्तर पर गिरना।
चाँदनी का पुष्प वर्षा-काल में वनशालाओं को और भी शोभामय बना देता है। और यह पुष्प, इसकी ठाठ तो देखिए। साल भर खिलने के बाद भी विश्राम नही माँगता और लगभग सभी देवों को प्रिय। रात की कालिमा में इस श्वेत पुष्प का खिलना अँधेरे में अमावस का चाँद प्रतीत होता है। कामनीयों के सृंगार में इसकी महत्ता मान सकते हैं। कभी ऐसी कल्पना होती है कि शकुंतला वर्षा-काल मे वन गमन को निकली हो। उसने अपनी शरीर को इस पुष्प से सुशोभित किया हुआ है और उसके पीछे दुष्यंत पुकारते चले आ रहे हैं। एक मृग छौना के पीछे भागती शकुंतला को पद ज़मीन पर ऐसे पड़ते हैं जैसे चाँदनी अपनी टहनी से टूट ज़मीन पर गिरती है।
कभी लगता है प्रकृति ने इतना श्वेत मोहक वर्ण चाँदनी को कैसे दिया होगा। बेदाग़ शुभ्र वर्ण। जिसमें संदेह की तनिक भी गुंजाइश नही। सभी दोषों और लांक्षणाओं से परिष्कृत। तभी तो इसे पूरे वर्ष खिलने का वरदान प्राप्त है। ऐसा नही वसंत में पंद्रह-बीस दिन खिलें उसके बाद ठनठन गोपाल। पुष्प हो तो चाँदनी जैसा। मोहक सौंदर्य और जीने की जिजीविषा से परिपूर्ण। किसी कामिनी की हया से ओतप्रोत। बारिश की बूंदों को मधु समझ उसे पीने की चिरइच्छा से सदैव हर्षित।
चाँदनी वास्तव में चाँद की भांति आकाश रूपी वाटिका में खिलती है। वह अपनी छटा किसी कोने में नही वरण पूरी वाटिका में बिखेरती है।
चाँदनी रात की रानी है!
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भई तृप्त
सावन के बूंदाकड़े पीकर
खिलती हो चांदनी
मधुरमय होकर!!
वर्षा-काल में यदि जल-प्रलय से कोई छति न होती तो इससे मनभावन और कोई ऋतु नही। वर्षा के कारण वाटिकाओं का हर्सोल्लासित हो हरित वस्त्र धारण कर चहक उठना भला किसे नही भाता। जेठ की झुलसती तपिश के बाद बारिश का आना किसी त्योहार से तनिक भी कम नही।
और तिसपर वाटिकाओं, गृह-परिसरों और वनस्थलों में पुष्पों का खिलना। जैसे मेह के रस को पादपों द्वारा अपने अंग-प्रत्यंग में पपीहे की तरह रसपान करना। एक अनंत आनंद की अनुभूति। वैसे तो वर्षा-काल में कुछेक पुष्प ही पुष्पित होते हैं। बसंत के स्वागत में पहले ही सारे पुष्प अपनी वार्षिक सौंदर्य-प्रदर्शन कर चुके होते हैं। जो जेठ की गर्मी को सहकर खिलते हैं वह ढीठ होते हैं।
इन्ही पुष्पों में एक चिरपरिचित पुष्प है चाँदनी। श्वेत वर्ण का यह पुष्प वैसे तो पूरे साल ही अपनी मनोहर छटा बिखेरता है परंतु बारिश में यह और भी मादक और आकर्षक लगता है।
महाकवि कालिदास ने मेघदूत में कई पुष्पों का वर्णन किया है जैसे कि अशोक, रक्तवर्णी कुरबक, शिरीष इत्यादि, जब अपने घर से दूर किसी पर देश मे रहता हुआ यक्ष मेघ से अपनी प्रेयसी के लिए संदेश भिजवाता है। चाँदनी का पुष्प शायद पूरे साल खिलता है इसलिए ज़्यादा आकर्षण न रहा होगा। यदि लिखा भी होगा तो वर्तमान में मेरी आँखों से नही गुज़रा होगा।
शुभ्र वर्ण का यह पुष्प पंच-दलों का होता है। इस एकल खिलना पसंद है परंतु गुच्छों में ही रहता है। शायद यह कहने की कोशिश हम साथ तो हैं पर अलग प्रकृति, अलग मूड वाले हैं। इसके पांचों दल एक घूमती हुई घिरनी जैसे लगते हैं और उनके मध्य भाग में हल्के पित वर्ण का एक टीका। जैसे किसी रमणी ने समस्त सृंगार के तदोपरांत अपनी ललाट पर पिले रंग की एक छोटा सा पिला बूटा आँक दिया हो। और इसके बाद अपनी चोटियों का अंतिम सिरा पुष्प की डंठल में बांध उसे पुष्प की टहनी से स्थिर कर दिया हो।
चाँदनी अपनी छटा रात में बिखेरती है पर प्रातःकाल में उतने ही उन्माद में रहती है जितना वह रात्रि के समय होती है। गाढ़े हरे रंग की पत्तियों के मध्य यह पुष्प सफ़ेद सितारों जैसी दिखटी है। जैसे रात का विस्तृत आँचल हो और उसपर नवीन तारों का झुंड उग आया हो। जैसे वर्षा-ऋतु में रात्रि के समय पेड़ों पर जुगनू चमक आते हैं। श्वेत चाँदनी कुछ इस तरह ही अपनी छोटी सी पौध में खिलखिलाती उठती है। ऐसा लगता है बारिश के उपरांत एक विस्तृत वाटिका में घास के ऊपर जल-कण आलस्य से सराबोर हो सुस्ता रहे हों।सारी वनस्थली चाँदनी के पुष्पों से सजी हो और इसी बीच एक सुंदर रमणी उस वनस्थली में प्रवेश करती है। अपने शरीर को उसने पुष्प-आभूषणों से सजाया है। अपने कलाइयों और पैरों में चाँदनी के पुष्पों को गूथ उन्हें अलंकृत किया है।अपने श्वेत मुखमंडल पर कोई पित परागकण मलकर उसे और भी मोहक बनाया है। और अपने अधरों पर पीले रंग की कोई मादक द्रव्य रंगा हो।
उस वनशाला में वह अकेली लजाई हुई खड़ी है जिसके मुखमंडल पर हया आकर ठहर गयी है। और इस पर से बारिश। जैसे किसी ने ताम्र की सुराही में मदिरा भर चाँदनी पर उलेड़ दिया हो और चाँदनी उस मदिरापान के पश्चात मदमस्त हो गयी है।
पतली, लघु डालियों पर खिली चाँदनी पर जब सावन के बूंदाकड़े गिरते हैं तो ऐसा लगता है चाँदनी बूंदों के बोझ से दबी जा रही है। अपने अधरों से उन जलबून्दों को पीने के बाद उसकी यौवनता और भी चंचल हो उठती है। और रस से भरी हुई चाँदनी में जीवन का आमोद सारी हदों को पार कर जाता हो। और बूंदों के भार से वह अपनी डाली से ऐसे गिरती है जैसे एक अलसाया सपना नींद के बोझ से गिर पड़ता है। जैसे धप्प से बेआवाज़ किसी युवती का अपने बिस्तर पर गिरना।
चाँदनी का पुष्प वर्षा-काल में वनशालाओं को और भी शोभामय बना देता है। और यह पुष्प, इसकी ठाठ तो देखिए। साल भर खिलने के बाद भी विश्राम नही माँगता और लगभग सभी देवों को प्रिय। रात की कालिमा में इस श्वेत पुष्प का खिलना अँधेरे में अमावस का चाँद प्रतीत होता है। कामनीयों के सृंगार में इसकी महत्ता मान सकते हैं। कभी ऐसी कल्पना होती है कि शकुंतला वर्षा-काल मे वन गमन को निकली हो। उसने अपनी शरीर को इस पुष्प से सुशोभित किया हुआ है और उसके पीछे दुष्यंत पुकारते चले आ रहे हैं। एक मृग छौना के पीछे भागती शकुंतला को पद ज़मीन पर ऐसे पड़ते हैं जैसे चाँदनी अपनी टहनी से टूट ज़मीन पर गिरती है।
कभी लगता है प्रकृति ने इतना श्वेत मोहक वर्ण चाँदनी को कैसे दिया होगा। बेदाग़ शुभ्र वर्ण। जिसमें संदेह की तनिक भी गुंजाइश नही। सभी दोषों और लांक्षणाओं से परिष्कृत। तभी तो इसे पूरे वर्ष खिलने का वरदान प्राप्त है। ऐसा नही वसंत में पंद्रह-बीस दिन खिलें उसके बाद ठनठन गोपाल। पुष्प हो तो चाँदनी जैसा। मोहक सौंदर्य और जीने की जिजीविषा से परिपूर्ण। किसी कामिनी की हया से ओतप्रोत। बारिश की बूंदों को मधु समझ उसे पीने की चिरइच्छा से सदैव हर्षित।
चाँदनी वास्तव में चाँद की भांति आकाश रूपी वाटिका में खिलती है। वह अपनी छटा किसी कोने में नही वरण पूरी वाटिका में बिखेरती है।
चाँदनी रात की रानी है!
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