अक्षरों का अदब
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हम कुछ नही सोचते। हम शब्दों को सोचते और उनके द्वारा ही जीवन पाते हैं। सत्य नही, पर शब्दों के सौरमंडल में अर्धसत्य।
अक्षरों से मिलकर शब्दों का बनना। कितनी बेहिसाब तो साझेदारी होती होगी अक्षरों को एक शब्द रूपी घर में रहने की ख़ातिर। कभी कभार हल्की नोक-झोंक और उठा पटक भी होती होगी अक्षरों में किसी गंभीर, नटखट और आवारा शब्द को गढ़ने उसे एक आयाम, एक निर्दिष्ट मानी, एक अनुभव और एक भावना को यथार्थ में उतारने के लिए।
अक्षरों और शब्दों में कितनी तो अदब होती है। इतनी शालीनता, धैर्य , खुदगर्ज़ी और भावुकपन।
अदब इतनी की कुछ अक्षर और शब्द इतने शर्मीले और संकोच से मिलते हैं कि उन्हें न्योता देना होता है आने के लिए। परस्पर सम्मान और पाक नियत से ही वह आते हैं और बसते हैं उन लाइनों, वाक्यों में जहाँ हम उनकी जगह चाहते हैं।
सीढ़ियों पर खड़े शब्द जब ऊपर आते हैं तो एक सघन अदबता भी उनके साथ ऊपर आती है। और वह सकुचाकर हमारे जहन रूपी कमरे में प्रवेश करते हैं। प्रेम और भाव का कितना तो मेह बरस जाता होगा इस दौरान।
अक्षरों और शब्दों को रखना होता है सहेजकर अदब के साथ। उन्हें वह इज़्ज़त बक्शनि होती है जिसकी तम्मना हम खुद किया करते हैं। उन्हें फुसलाकर और सप्रेम उन जगहों पर बिठाना होता है जहाँ वह खुशी और खुदगर्ज़ी से बैठते हैं हमारे मन के विचारों को सम्प्रेषित करने हेतु।
बेअदबी की ज़रा सी ठेस लगी नही की शब्द नाराज़ हो जाते हैं। रुठ जाते हैं। शब्दों का रूठना मन के ऊपर चोट है तभी तो हम उस स्थिति में वह कह नही पाते जो हम कहना चाहते हैं। अक्षरों और शब्दों का रूठना हमारे अंतर्मन का रूठना है।
शब्दों से शालीनता से मिलिये। बशीर बद्र की ग़ज़ल- "कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से,ये नए मिजाज का शहर है, जरा फ़ासले से मिला करो।"
शब्दों की अपनी अदब है, अपनी आबरू और अपना फ़साना है। हम तो मूक हैं। शब्दों को दूर से देखते हैं। उन्हें आमंत्रित करते हैं अपने जहन में उठती भावनाओं को यथार्थ का जामा पहनाने की ख़ातिर।
शब्दों को अदब पसंद हैं।
थोड़ा अदब भी ज़रूरी हैं अक्षरों और शब्दों से मिलने में।
~n
Pic: #ShyamKishor
#lettering #letters #typo #typodesign #calligraphy #letterstyle #hinditypo #hindifonts #hindilettering
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हम कुछ नही सोचते। हम शब्दों को सोचते और उनके द्वारा ही जीवन पाते हैं। सत्य नही, पर शब्दों के सौरमंडल में अर्धसत्य।
अक्षरों से मिलकर शब्दों का बनना। कितनी बेहिसाब तो साझेदारी होती होगी अक्षरों को एक शब्द रूपी घर में रहने की ख़ातिर। कभी कभार हल्की नोक-झोंक और उठा पटक भी होती होगी अक्षरों में किसी गंभीर, नटखट और आवारा शब्द को गढ़ने उसे एक आयाम, एक निर्दिष्ट मानी, एक अनुभव और एक भावना को यथार्थ में उतारने के लिए।
अक्षरों और शब्दों में कितनी तो अदब होती है। इतनी शालीनता, धैर्य , खुदगर्ज़ी और भावुकपन।
अदब इतनी की कुछ अक्षर और शब्द इतने शर्मीले और संकोच से मिलते हैं कि उन्हें न्योता देना होता है आने के लिए। परस्पर सम्मान और पाक नियत से ही वह आते हैं और बसते हैं उन लाइनों, वाक्यों में जहाँ हम उनकी जगह चाहते हैं।
सीढ़ियों पर खड़े शब्द जब ऊपर आते हैं तो एक सघन अदबता भी उनके साथ ऊपर आती है। और वह सकुचाकर हमारे जहन रूपी कमरे में प्रवेश करते हैं। प्रेम और भाव का कितना तो मेह बरस जाता होगा इस दौरान।
अक्षरों और शब्दों को रखना होता है सहेजकर अदब के साथ। उन्हें वह इज़्ज़त बक्शनि होती है जिसकी तम्मना हम खुद किया करते हैं। उन्हें फुसलाकर और सप्रेम उन जगहों पर बिठाना होता है जहाँ वह खुशी और खुदगर्ज़ी से बैठते हैं हमारे मन के विचारों को सम्प्रेषित करने हेतु।
बेअदबी की ज़रा सी ठेस लगी नही की शब्द नाराज़ हो जाते हैं। रुठ जाते हैं। शब्दों का रूठना मन के ऊपर चोट है तभी तो हम उस स्थिति में वह कह नही पाते जो हम कहना चाहते हैं। अक्षरों और शब्दों का रूठना हमारे अंतर्मन का रूठना है।
शब्दों से शालीनता से मिलिये। बशीर बद्र की ग़ज़ल- "कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से,ये नए मिजाज का शहर है, जरा फ़ासले से मिला करो।"
शब्दों की अपनी अदब है, अपनी आबरू और अपना फ़साना है। हम तो मूक हैं। शब्दों को दूर से देखते हैं। उन्हें आमंत्रित करते हैं अपने जहन में उठती भावनाओं को यथार्थ का जामा पहनाने की ख़ातिर।
शब्दों को अदब पसंद हैं।
थोड़ा अदब भी ज़रूरी हैं अक्षरों और शब्दों से मिलने में।
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Pic: #ShyamKishor
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