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नैनसुख

नैनसुख
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"नयनसुख" अर्थात आँखों को सुख पहुँचाने वाला। जिसके पान से आँखों की पिपासा बुझती हो। नैनसुख लघु कला शैली(मिनिएचर पेंटिंग्स) में एक जादुई नाम।  भारतीय और पहाड़ी कला शैली में उनका नाम अग्रणी श्रेणी में।
नैनसुख को प्रतिभाशाली फ़िल्मकार अमित दत्ता की फ़िल्म "नैनसुख" के बहाने जानने का सुयोग प्राप्त हुआ। नैनसुख आज के हिमाचल प्रदेश के गुलेर में अठारवीं शताब्दी में जन्में थे। जन्म से ही रंग और ब्रुश का साथ रहा क्योंकि पूरा परिवार ही चित्रकला को समर्पित। पिता और बड़े भाई पहाड़ी चित्रकला शैली के सुपरिचित नाम। ऐसे में नैनसुख के लिए चित्रकला एक तरह से विरासत में मिली।


परंतु नैनसुख ने अपने लिए एक अलग मार्ग का चुनाव किया। गुलेर जैसी छोटी जगह में बड़े भाई और स्वयं उनके लिए रहना शायद रुचिकर न रहा होगा। उत्तम कोटि के दो चित्रकारों के लिए उस छोटी जगह में रहकर नाम कमाना लिहाज़ा रुतबे और नाम के अनुरूप उचित न हो।
इस कारण नैनसुख वहाँ से जसरोटा चले गए और राजा बलवंत सिंह के संरक्षण में क़रीब बीस सालों तक काम किया। इस दौरान कई अन्य संरक्षकों के साथ भी काम किया परंतु मूल रूप से राजा बलवंत सिंह के नाम के साथ ही उनका नाम प्रसिद्धि रूप पाता है।
उस समय के मुग़ल कालीन युग में मुग़ल कला शैली का प्रभाव अन्य राज्यों पर पड़ना स्वाभाविक था। ऐसे में हिमाचल प्रदेश का गुलेर भी अछूता न रहता। कुछ विद्वानों का मत है कि नैनसुख के कलाप्रिय परिवार का ज़ोर पहाड़ी कला शैली के ऊपर था जबकि नैनसुख मुग़ल कला शैली की विधा को भी पहाड़ी चित्रकला शैली में शामिल करना चाहते थे। और यह भी एक विरोध का कारण था और शायद इस कारण भी उनको गुलेर से जसरोटा आना पड़ा।
पर जो भी नैनसुख का जसरोटा आना भारतीय चित्रकला शैली के लिए कोटि का महत्व रखता है। मुग़ल कला शैली के सूक्ष्म अध्यन का प्रभाव उनकी पहाड़ी कला शैली पर पड़ा। और चित्रकला शैली में उनका नाम एक अग्रणी कलाकार के नामों में लिया जाता है।
एक चित्रकार और उसके संरक्षक के बीच के आत्मीय संबंध का उदाहरण राजा बलवंत सिंह और नैनसुख जैसा और कोई अन्य नही। नैनसुख ने बलवंत सिंह के निजी जीवन के पल जैसे पूजा करते हुए, नृत्य का आनंद लेते हुए, नाई द्वारा ढाढ़ी की कटाई करवाते हुए, सर्दी के दिनों में लिहाफ़ लपेटे हुए आग सेंकने का दृश्य, शिकार करते हुए और महल की खिड़की से झाँकते हुए। चित्रकार होना एक बात है परंतु यदि उसे एक उचित कद्रदान मिल जाये तो सोने पे सुहागा। बलवंत सिंह ने नैनसुख की कला को सराहा और शायद उनकी असमय मृत्यु होने पर नैनसुख स्वयं उनकी अस्थियों को गंगा में बहाने के लिए गए।
बलवंत सिंह की मृत्यु के तदोपरांत नैनसुख जसरोटा से बसोहली को चले गए और जीवन के शेष वर्ष वही बितायें। उस प्रवास के दौरान उनकी चित्रकला के विषय धार्मिक और ध्यान से संबंध रखते हैं। शायद कुछ पेंटिंग्स गीतगोविंद के लिए भी बनाई।

नैनसुख ने भारतीय चित्रकला शैली और खासकर पहाड़ी कला शैली को उसके शिखर तक पहुंचाया। उनके पिता को यह ज्ञात न होगा कि एक दिन नैनसुख वास्तव में अपने नाम के अनुरूप ही आचरण करेंगे।


अमित दत्त प्रयोगात्मक फ़िल्मकारों में से एक हैं। उनकी एक फ़िल्म "क्रमशः" देखी और उसके बाद "नैनसुख"। अमित अपनी फ़िल्म शैली में शब्दों को लेकर मितव्ययी हैं। जब परदे पर चलता हुआ दृश्य ही बोलता जान पड़ता है तब शब्दों और डायलॉग्स की आवश्यकता क्या। नैनसुख में कलाकार और फ़िल्म की कहानी को डायलॉग्स की ज़रूरत कम जान पड़ती है। फ़िल्म के दृश्य एक कैनवास पर फूटते हुए जान पड़ते हैं। कैमरा जैसा किसी स्थान पर स्थिर मुद्रा में रखा हो और केवल उसकी आँखें दृश्यों को चलायमान बना रही हैं। नैनसुख की पेंटिंग्स के भीतर जैसे जान आ गयी और वह अपनी कहानी आप ही अभिव्यक्त कर रही हों। संयम और दृश्यों को लेकर बारीकी से काम करना। हरेक दृश्य जैसे एक सोची-समझी पेंटिंग हो जिसमें रंग और ब्रुश-व्यवहार का संतुलन कायम रखा गया है। फ़िल्मकार और कलाकार कहीं से भी किसी जल्दी में नही जान पड़ते। फ़िल्म के सीन जैसे आप ही क्रमानुसार फलीभूत होते जान पड़ते हैं। जैसे किसी ने क्रमबद्ध कोई सूची बना ली हो और करीने से लगी तस्वीरें एक ईकाईबद्ध हो गिरी जा रही हों।
उस समय के परिवेश और लोक-व्यवहार में भी अपने तरह की कशिश और संयम रहा होगा। राजा की सवारी को ढोते पालकी वाहक, उत्तम नस्ल के घोड़े खरिदने के पहले राजमहल में प्रदर्शनी, नृत्य मग्न होती नृत्यांगना और मुग्ध होता राजा इत्यादि।
अमित दत्त की फ़िल्म नैनसुख चित्रकला शैली को पुनः हमारे सामने लाती है। कितना तो अनुसंधान रहा होगा पेंटिंग्स और चित्रकार और उससे जुड़े लोगों को तलाशने में। और उसके बाद उनका एक रसात्मक रुपायन। इतिहास को उसकी नज़र से देखने की ख़ातिर भी एक नज़र चाहिए। कहीं कोई अतिशयोक्ति न हो जाये। अधीरता में कोई कलाकार प्रस्तुति में बड़बोला न हो जाये। और एक सुर, एक संगीत जो अमित दत्त की फ़िल्म में होता है वह न खो जाए। अमित दत्त की फ़िल्मों को देखना एक संगीत को सुनना है। जैसे किसी ने कोई दृश्य हमारे खोल कर रख दिया हो और उसकी पातियाँ अपने आप पलटती जा रही हैं। दृश्य और कलाकार और उसके पीछे चलता संगीत सब अपने आप में एक सुर में गुथे जान पड़ते हैं। एक तारतम्य जो इन्हें एक सूत्र में बांधता है। कला का रस कद्रदान के ह्रदय के भीतर से होकर गुजरता है। और इसके लिए अधीरता नही वरन संयमता चाहिए। समय को उसकी रौ में बहने दो जैसे दरिया का पानी अपने आप बहता है, जैसे पहाड़ों पर हवायें अपने संगीत के सुर में बहती हैं।
नैनसुख एक उम्दा प्रस्तुति है हमारे ज़माने के फ़िल्मकारों में से। आज के अधीर जीवन के मध्य एक सोया हुआ दिवास्वप्न। इसे पकड़ने की कोशिश करते हैं पता नही फिर ऐसा पल मिले या न मिले।
अब बस!
~n

Pic:Google
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